बरसों बरस सजेंगे शहीदों के मजारों पे मेले...
जंगे आज़ादी के शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह खान और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का आज बलिदान दिवस है, आज से 93 साल पहले महज़ सत्ताईस साल की उम्र में अंग्रेजों ने 19 दिसम्बर 1927 को अशफ़ाक़ उल्लाह खान और उनके गहरे दोस्त और क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी पर चढ़ा दिया था
22 अक्टूबर 1900 को शाहजहांपुर में (वर्तमान उत्तर प्रदेश में) जन्मे अशफ़ाक़ ने वतन को आज़ाद कराने के लिए काफी संघर्ष किया था, महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल से उनकी गहरी दोस्ती थी, शायद दोनों में शायरी के एक से शौक़ ने दोनों की दोस्ती को मज़बूत बना दिया था, रामप्रसाद का तखल्लुस "बिस्मिल" था वहीँ अशफाक का "हसरत".
"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" जैसा दिलों में वलवला भर देने वाला तराना लिखने वाले बिस्मिल और उनके साथियों के दिलों में आज़ादी की जंग के लिए क्या ही वलवला रहा होगा, हम बस अंदाज़ा लगा सकते हैं.....
.... 9 अगस्त 1925 को अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए हथियारों का इंतजाम करने के लिए अशफाक उल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ अन्य क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास "काकोरी" नाम की जगह पर ट्रेन लूटी थी... इसे इतिहास में काकोरी कांड के नाम से याद किया जाता है... इसके बाद फिरंगी सरकार बुरी तरह इन लोगों के पीछे पड़ गई थी और आखिरकार 26 सितम्बर 1925 सितंबर को बिस्मिल और अशफाक को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था..... दोनों को अलग अलग जेलों मैं एक ही दिन यानी 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी गई.....
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"शहीदों की मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा"
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..... ये शेर जंगे आज़ादी के शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान ने लिखा था,
..... फेसबुक दोस्त मुहम्मद उमर अशरफ़ ने एक दिन बताया था कि वतन वालों का सितम देखिये शहीद के साथ, अशफ़ाक़ के नाम पर पुरे भारत मे एक सड़क, चौक , पार्क का नाम नही मिलता है।
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बेहद लहीम शहीम और खूबसूरत अशफ़ाक़ उल्लाह की हर एक तस्वीर में जिस तरह वो मर्दाना खूबसूरती की बेहतरीन मिसाल नज़र आया करते थे, उसी तरह उनकी आख़री तस्वीर में भी उनकी खूबसूरती में रत्ती भर फ़र्क नही दिख रहा, यूँ लगता है जैसे कोई मासूम सा शख़्स सुकून की नींद में सोते हुए मुस्कुरा रहा हो.... शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान साहब की आख़िरी तस्वीर देखिये
हम ख़ून की किस्ते तो कई दे चुके लेकिन ,
ए ख़ाक ए वतन क़र्ज़ अदा क्यों नहीं होता ।