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Saturday, December 12, 2020

तेरी पसीनें की बूंदे....

 तेरी पसीनें की बूंदे....

तेरी आँसुओं की बूंदें...
ये मादरजात के लुटेरे...
ये सूटबूट के डकैत...
ये सफेद लिबास
बदसूरत भेड़िये...
अब रोता क्या है?
तेरी जमीं के ये सौदागर...
इतनी शक्ति तूने ही दी...
और अब बेहाल सा होता क्या है?
फिर भी...
निसंतान जमीं के परवरिशदाता...
तेरा हल अभी मरा नहीं है!
तेरा पसीना सूखा नहीं है!
तेरी हुंकार से देख
तख्तों मसनद कांप रहे है!
फौज के पीछे मक्कार छुप रहे है!
मक्कारों की ताक ना धर...
जिन पैरों ने दो फिट कीचड़ में भी
सीखा है पैदावार के लिए चलना,
वो थमा है अभी देहली की सीमा पर!
हम भी तेरे साथ है,
अलख की ज्वाला तेज कर!
जमी तेरी, खून-पसीना तेरा
तेरी मेहनत से उपजा अनाज का भाव ना तेरा!
जिनके पुरखो ने ना देखी फटे एड़ियों की ठनक,
वो गुदामों में ठुसलेंगे तेरी कमाई...
दल्ले खा रहे तेरी मलाई....!!
लेकिन अब की बार, खाली हाथ ना जाना
हक है तेरा , हक लेके जाना...!
जरूरत पड़ी तो हल ऐसे चलाना
उखाड़ फैंक हर उस धेले को
जो चाहता है तेरी पैदावार हड़पना!
तू किसान है किसान... असली भगवान....
जिसकी हड्डियों में भी होता है...अन्नदाता!!
- जावेद पाशा