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Sunday, January 15, 2023

अंग्रेज़ो के खिलाफ पहली आवाज़ उठाने वाले मुस्लमान








संघ मुख्यालय व उनसे जुड़े संघटन कार्यालयों में भारतिया मुस्लिम क्रांतीकारियों की न तस्वीर न उनका कोई गुणगान ! खुद राष्ट्रवादी दूसरे को देशद्रौही कहने से या उंगली उठाने से चार उंगली उन पर ही उठेंगी :
देश के लिए मुसलमानो की शहादत और आज के छदम राष्ट्रवादी कल के वो परिवार की बगावत भूल चुकी है, अगर हां भूल चुकी है तो इस न्यूज़ को पढ़ें, और खासतौर से "गिरिराज सिंह, योगी, साध्वी, बाबा राम देव, जैसे फालतू लोगो को बताएं i देश के लिए मुसलमानो की कुर्बानियों को !
भारत को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी दिलाने में अनगिनत मुस्लिम स्वतंत्रा सेनानियो ने अपनी जान की क़ुरबानी दी। परन्तु जब-कभी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बात होती है तो मुस्लिम समुदय से सिर्फ एक ही नाम सामने अत हैं। जहाँ देखो वहीं दिखाई देता है। लेकिन उसके अलावा किसी का नाम नज़र नहीं आता हैं। उस नाम से आप भी अच्छी तरह वाकिफ हैं, जी हाँ वह और कोई नहीं ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ का नाम दिखाई देता हैं। तो मुद्दा यह हैं कि क्या सिर्फ अशफ़ाक़ उल्लाह खान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे। बल्कि अगर अस्ल तारिख का गहन अध्यन किया जाये, तो आप देखेगे 1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मुसलमानो ने विदेशी आक्रमणकारियो से जंग लड़ते हुए अपनी जानो को शहीद करते हुए सब कुछ क़ुरबान कर दिया।
आइए जानते हैं
फतवा राष्ट्रप्रेम का
मौलाना हुसैन अहमद मदनी (रह.) ने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जब फतवा दिया. कि अंग्रेजों की फौज में भर्ती होना हराम है। अंग्रेजी हुकुमत ने मौलाना के खिलाफ मुकदमा दायर किया. सुनवाई में अंग्रेज जज ने पूछा -” क्या आपने फतवा दिया है कि अंग्रेजी फ़ौज में भर्ती होना हराम है ?”
मौलाना ने जवाब दिया – ” हाँ फतवा दिया है.
और सुनो यही फतवा इस अदालत में अभी भी दे रहा हूं
और याद रखो…आगे भी जिंदगी भर यही फतवा देता रहूंगा..”””
जज ने कहा -” मौलाना ..इसका अंजाम जानते हो ..सख्त सज़ा होगी..।
मौलाना – ” फतवा देना मेरा काम…और सज़ा देना तेरा काम ..तू सज़ा दे…।
जज गुस्से में आ गया -” तो इसकी सज़ा फांसी है।
मौलाना मुस्कुराने लगे और झोले से कपडा निकाल कर मेज पर रख दिया….
जज ने कहा ये क्या है..?
मौलाना ने फरमाया- “ये कफ़न का कपडा है …मैं देवबंद से कफ़न साथ में लेकर आया था।”
” लेकिन कफन का कपडा तो यहाँ भी मिल जाता..”
” हाँ ..कफ़न का कपडा यहाँ मिल तो जाता.. लेकिन …
जिस अंग्रेज की सारी उम्र मुखालफत की..उसका कफ़न पहन के कब्र में जाना मेरे जमीर को गंवारा नहीं। ”
( फतवे और इस घटना के असर में ..हजारों लोग फौज की नौकरी छोड़ कर जंगे आज़ादी में शामिल हुए )
इसके बाद सिलशिला शुरू हो गया
शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० का अंग्रेज़ो के खिलाफ फतवा
1772 मे शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० ने अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा दे दिया ( हमारे देश का इतिहास 1857 की मंगल पांडे की क्रांति को आज़ादी की पहली क्रांति मन जाता हैं) जबकि सचाई यह है कि शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० 85 साल पहले आज़ादी की क्रांति की लो हिन्दुस्तानीयो के दिलों मे जला चुके थे. इस जेहाद के ज़रिये उन्होंने कहा के अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो.
यह फतवे का नतीजा था कि मुस्लमानो के अन्दर एक शऊर पैदा होना शुरू हो गया के अंग्रेज़ लोग फकत अपनी तिजारत ही नहीं चमकाना चाहते बल्कि अपनी तहज़ीब को भी यहां पर ठूसना चाहते है.
हैदर अली और टीपू सुल्तान की वीरता
हैदर अली और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के प्रारम्भिक खतरे को समझा और उसका विरोध किया.
टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसा योद्धा भी था जिसकी दिमागी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए.
अंग्रेजों से लोहा मनवाने वाले बादशाह टीपू सुल्तान ने ही देश में अंग्रेजो के ज़ुल्म और सितम के खिलाफ बिगुल बजाय था, और जान की बाज़ी लगा दी मगर अंग्रेजों से समझौता नहीं किया. टीपू अपनी आखिरी साँस तक अंग्रेजो से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए. टीपू की बहादुरी को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें विश्व का सबसे पहला राकेट आविष्कारक बताया था.
बहादुर शाह ज़फ़र
बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे. उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया. इस जंग में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई.
1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था. यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला. इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रुप ले लिया. विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटेनी ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया जो अगले 10 वर्षों तक चला.
ग़दर आंदोलन
गदर शब्द का अर्थ है विद्रोह, इसका मुख्य उद्देश्य भारत में क्रान्ति लाना था. जिसके लिए अंग्रेज़ी नियंत्रण से भारत को स्वतंत्र करना आवश्यक था.गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया, भोपाल के बरकतुल्लाह ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे जिसने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था.
ग़दर पार्टी के सैयद शाह रहमत ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफल गदर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सजा दी गई. फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीकी ने जौनपुर के सैयद मुज़तबा हुसैन के साथ मलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था.
खुदाई खिदमतगार मूवमेंट
लाल कुर्ती आन्दोलन भारत में पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में खुदाई ख़िदमतगार के नाम से चलाया गया जो की एक ऐतिहासिक आन्दोलन था. विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी.
उसके बाद उन्हें यातनाओं की झेलने की आदत सी पड़ गई. जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘ख़ुदाई ख़िदमतग़ार’ नामक संस्था की स्थापना की और अपने आन्दोलनों को और भी तेज़ कर दिया.
अलीगढ़ आन्दोलन
सर सैय्यद अहमद खां ने अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन का नेतृत्व किया. वे अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक काल में राजभक्त होने के साथ-साथ कट्टर राष्ट्रवादी थे. उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया.
1884 ई. में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैय्यद अहमद खाँ ने कहा था कि, हमें (हिन्दू और मुसलमानों को) एक मन एक प्राण हो जाना चाहिए और मिल-जुलकर कार्य करना चाहिए.
यदि हम संयुक्त है, तो एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक सहायक हो सकते हैं। यदि नहीं तो एक का दूसरे के विरूद्ध प्रभाव दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा. इसी प्रकार के विचार उन्होंने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में भाषण देते समय व्यक्त किये. एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि, हिन्दू एवं मुसल्मान शब्द को केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों ही एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं.
सर सैय्यद अहमद ख़ाँ द्वारा संचालित ‘अलीगढ़ आन्दोलन’ में उनके अतिरिक्त इस आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता थे.
नजीरअहमद
चिरागअली
अल्ताफहुसैन
मौलाना शिबली नोमानी
यह तो अभी चुनिंदा लोगो के नाम हमने आपको बातये हैं. ऐसे सैकड़ो मुसलमान थे जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपने जीवन को कुर्बान कर देश को आज़ाद कराया. इतना ही नहीं मुस्लिम महिलाओ में बेगम हजरत महल, अस्घरी बेगम, बाई अम्मा ने ब्रिटिश के खिलाफ स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान दिया है. पर अफ़सोस भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इतने मुस्लमानो के शहीद होने के बाद भी हमको मुस्लमानो के योगदान के बारे में नहीं बताया जाता.
अंग्रेज़ो के खिलाफ पहली आवाज़ उठाने वाले मुस्लमान
नवाब सिराजुद्दौला
शेरे-मैसूर टीपू सुल्तान
हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी
हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी
हज़रात सयेद अहमद शहीद
हज़रात मौलाना विलायत अली सदिकपुरी
अब ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फर
अल्लामा फज़ले हक़ खैराबादी
शहज़ादा फ़िरोज़ शाह
मोलवी मुहम्मद बाकिर शहीद
बेगम हज़रत महल
मौलाना अहमदुल्लाह शाह
नवाब खान बहादुर खान
अजीज़न बाई
मोलवी लियाक़त अली अल्लाहाबाद
हज़रत हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मकई
हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम ननोतवी
मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी
शेखुल हिन्द हज़रत मौलाना महमूद हसन
हज़रत मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी
हज़रत मौलाना रशीद अहमद गंगोही
हज़रत मौलाना अनवर शाह कश्मीरी
मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली
हज़रत मौलाना किफायतुल्लाह
सुभानुल हिन्द मौलाना अहमद सईद देहलवी
हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी
सईदुल अहरार मौलाना मुहम्मद अली जोहर
मौलाना हसरत मोहनी
मौलाना आरिफ हिसवि
मौलाना अबुल कलम आज़ाद
हज़रत मौलाना हबीबुर्रहमान लुधयानवी
सैफुद्दीन कचालू
मसीहुल मुल्क हाकिम अजमल खान
मौलाना मज़हरुल हक़
मौलाना ज़फर अली खान
अल्लामा इनायतुल्लाह खान मशरिक़ी
डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी
जनरल शाहनवाज़ खान
हज़रत मौलाना सयेद मुहम्मद मियान
मौलाना मुहम्मद हिफ्जुर्रहमान स्योहारवी
हज़रत मौलाना अब्दुल बरी फिरंगीमहली
खान अब्दुल गफ्फार खान
मुफ़्ती अतीक़ुर्रहमान उस्मानी
डॉ.सयेद महमूद
खान अब्दुस्समद खान अचकजाई
रफ़ी अहमद किदवई
युसूफ मेहर अली
अशफ़ाक़ उल्लाह खान
बैरिस्टर आसिफ अली
हज़रत मौलाना अताउल्लाह शाह बुखारी
अब्दुल क़य्यूम अंसारी
"अपील"
अपने उन तमाम हिंदू मुस्लिम सिख इसाई राष्ट्रवादी साथियों से जिनके पूर्वजों के त्याग त्पसस्या और बलिदान से देश आज़ाद हुआ और आपकी खामौशी आपकी बुज़दिली साबित कर रहीं है ! और उन मुस्लिम भाइयो–बहनो से जहाँ जहाँ तक मेरा यह लेख पहुँचे खुदारा अपने बच्चो को इसलामी तारीख पढाओ,उलामा–ए–दीन के कारनामे सुनाओ|जो चीज इस मुल्क के इतिहास से गायब कर दी गई है उसे तुम खुद अपने बच्चे–बच्चियो को बताओ,ये वक़्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है |
~ Md Sher Ali

Wednesday, May 11, 2022

The first freedom struggle of India








The first freedom struggle of India, launched in 1857, has essentially become synonymous with figures like Mangal Pandey, Nana Saheb, Tatya Tope, Rani Laxmibai, and Veer Kunwar Singh.
However, being a widespread movement of massive proportions, many of its heroes have been lost in oblivion. One such prominent leader of the 1857 Mutiny was Maulavi Liyaquat Ali, hailing from Allahabad, UP.
During the Revolt, Maulavi Liyaquat Ali led the movement in Allahabad and managed to keep the British forces at bay from June 6, 1857 to June 16, 1857.
Maulavi Liyaquat Ali was an eminent Islamic scholar, and was also highly respected. After being fired from his job, he returned to his village, visiting Delhi, Bhopal, and Tonk and met Sayyid Ahmad Shaheedi who was waging a guerrilla war against British.
This probably pushed the Maulavi towards armed struggle. In his village, he opened a madrasa for children. Meanwhile, he began organising local peasants in their struggle against the persecution of the Company Bahadur and his loyal native rulers, especially in rural areas. Popular with small zamindars, talukdars and common people in Allahabad, Mirzapur and Pratapgarh, he soon emerged as a local hero in Rohilkhand, Awadh and Kanpur.
His influence soon extended to the Panda community, the Pragwal Brahmins, and Muslim majority villages also.
As a result of his efforts, the people of Allahabad were at the forefront in 1857.

Monday, April 4, 2022

Ashfaqulla Khan







Remembering Martyr #AshfaqullaKhan as a legend for the very famous Kakori train robbery. He was a missionary with clear thinking, courage, and patriotism who stood against the British empire in India for India’s struggle for Independence.
Ashfaqulla Khan was inspired by patriotic personality of Pandit Ram Prasad Bismil. In 1924, under the guidance and leadership of Ram Prasad Bismil, Ashfaqulla Khan and his companions decided to establish their separate revolutionary organisation to fight against British rule in India. The Hindustan Republican Association (HRA) was formed in 1924 that focussed on the armed revolutions against the British Raj in India.
Ashfaqulla Khan and Ram Prasad Bismil worked and lived together during the struggle for India’s freedom despite their different religions.
A night before hanging Ashfaqulla Khan recited these lines written by him to Ram Prasad Bismil.

“किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाए,
ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना;
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,
जबां तुम हो, लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना।
जाऊंगा खाली हाथ मगर ये दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दोस्तान आज़ाद वतन कहलायेगा? बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं “फिर आऊंगा, फिर आऊंगा,फिर आकर के ऐ भारत मां तुझको आज़ाद कराऊंगा”।
जी करता है मैं भी कह दूँ पर मजहब से बंध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूं;
हां खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूंगा,
और जन्नत के बदले उससे एक पुनर्जन्म ही माँगूंगा।”

Such were our legends, great freedom fighters. 
To honour the sacrifices of Shaheed Ashfaqulla Khan in India’s struggle for independence, the government of Uttar Pradesh declared the construction of a 121-acre zoological garden named after Khan in January 2020. The cost of the project was Rs. 234 crores, which was granted by the state government.

Sunday, December 20, 2020

बरसों बरस सजेंगे शहीदों के मजारों पे मेले...


 
बरसों बरस सजेंगे शहीदों के मजारों पे मेले...


जंगे आज़ादी के शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह खान और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का आज बलिदान दिवस है, आज से 93 साल पहले महज़ सत्ताईस साल की उम्र में अंग्रेजों ने 19 दिसम्बर 1927 को अशफ़ाक़ उल्लाह खान और उनके गहरे दोस्त और क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी पर चढ़ा दिया था
22 अक्टूबर 1900 को शाहजहांपुर में (वर्तमान उत्तर प्रदेश में) जन्मे अशफ़ाक़ ने वतन को आज़ाद कराने के लिए काफी संघर्ष किया था, महान क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल से उनकी गहरी दोस्ती थी, शायद दोनों में शायरी के एक से शौक़ ने दोनों की दोस्ती को मज़बूत बना दिया था, रामप्रसाद का तखल्लुस "बिस्मिल" था वहीँ अशफाक का "हसरत".
"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" जैसा दिलों में वलवला भर देने वाला तराना लिखने वाले बिस्मिल और उनके साथियों के दिलों में आज़ादी की जंग के लिए क्या ही वलवला रहा होगा, हम बस अंदाज़ा लगा सकते हैं.....
.... 9 अगस्त 1925 को अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए हथियारों का इंतजाम करने के लिए अशफाक उल्ला खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ अन्य क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास "काकोरी" नाम की जगह पर ट्रेन लूटी थी... इसे इतिहास में काकोरी कांड के नाम से याद किया जाता है... इसके बाद फिरंगी सरकार बुरी तरह इन लोगों के पीछे पड़ गई थी और आखिरकार 26 सितम्बर 1925 सितंबर को बिस्मिल और अशफाक को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था..... दोनों को अलग अलग जेलों मैं एक ही दिन यानी 19 दिसम्बर 1927 को फांसी दे दी गई.....
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"शहीदों की मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा"
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..... ये शेर जंगे आज़ादी के शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान ने लिखा था,
..... फेसबुक दोस्त मुहम्मद उमर अशरफ़ ने एक दिन बताया था कि वतन वालों का सितम देखिये शहीद के साथ, अशफ़ाक़ के नाम पर पुरे भारत मे एक सड़क, चौक , पार्क का नाम नही मिलता है।
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बेहद लहीम शहीम और खूबसूरत अशफ़ाक़ उल्लाह की हर एक तस्वीर में जिस तरह वो मर्दाना खूबसूरती की बेहतरीन मिसाल नज़र आया करते थे, उसी तरह उनकी आख़री तस्वीर में भी उनकी खूबसूरती में रत्ती भर फ़र्क नही दिख रहा, यूँ लगता है जैसे कोई मासूम सा शख़्स सुकून की नींद में सोते हुए मुस्कुरा रहा हो.... शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान साहब की आख़िरी तस्वीर देखिये
हम ख़ून की किस्ते तो कई दे चुके लेकिन ,
ए ख़ाक ए वतन क़र्ज़ अदा क्यों नहीं होता ।