A message in its most general meaning is an object of communication. It is something which provides information or message; it can also be this information or message itself.
Showing posts with label Independent. Show all posts
Showing posts with label Independent. Show all posts
Sunday, February 20, 2022
हम आजाद हैं...
भारत में सेवा करने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को इंग्लैंड लौटने पर सार्वजनिक पद/जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। तर्क यह था कि उन्होंने एक गुलाम राष्ट्र पर शासन किया है जिस जी वजह से उनके दृष्टिकोण और व्यवहार में फर्क आ गया होगा। अगर उनको यहां ऐसी जिम्मेदारी दी जाए, तो वह आजाद ब्रिटिश नागरिकों के साथ भी उसी तरह से ही व्यवहार करेंगे।
इस बात को समझने के लिए नीचे दिया गया वाक्य जरूर पढ़ें
एक ब्रिटिश महिला जिसका पति ब्रिटिश शासन के दौरान पाकिस्तान और भारत में एक सिविल सेवा अधिकारी था। महिला ने अपने जीवन के कई साल भारत के विभिन्न हिस्सों में बिताए। अपनी वापसी पर उन्होंने अपने संस्मरणों पर आधारित एक सुंदर पुस्तक लिखी।
महिला ने लिखा कि जब मेरे पति एक जिले के डिप्टी कमिश्नर थे तो मेरा बेटा करीब चार साल का था और मेरी बेटी एक साल की थी। डिप्टी कलेक्टर को मिलने वाली कई एकड़ में बनी एक हवेली में रहते थे। सैकड़ों लोग डीसी के घर और परिवार की सेवा में लगे रहते थे। हर दिन पार्टियां होती थीं, जिले के बड़े जमींदार हमें अपने शिकार कार्यक्रमों में आमंत्रित करने में गर्व महसूस करते थे, और हम जिसके पास जाते थे, वह इसे सम्मान मानता था। हमारी शान और शौकत ऐसी थी कि ब्रिटेन में महारानी और शाही परिवार भी मुश्किल से मिलती होगी।
ट्रेन यात्रा के दौरान डिप्टी कमिश्नर के परिवार के लिए नवाबी ठाट से लैस एक आलीशान कंपार्टमेंट आरक्षित किया जाता था। जब हम ट्रेन में चढ़ते तो सफेद कपड़े वाला ड्राइवर दोनों हाथ बांधकर हमारे सामने खड़ा हो जाता। और यात्रा शुरू करने की अनुमति मांगता। अनुमति मिलने के बाद ही ट्रेन चलने लगती।
एक बार जब हम यात्रा के लिए ट्रेन में सवार हुए, तो परंपरा के अनुसार, ड्राइवर आया और अनुमति मांगी। इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती, मेरे बेटे का किसी कारण से मूड खराब था। उसने ड्राइवर को गाड़ी न चलाने को कहा। ड्राइवर ने हुक्म बजा लाते हुए हुए कहा, जो हुक्म छोटे सरकार। कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर समेत पूरा स्टाफ इकट्ठा हो गया और मेरे चार साल के बेटे से भीख मांगने लगा, लेकिन उसने ट्रेन को चलाने से मना कर दिया. आखिरकार, बड़ी मुश्किल से, मैंने अपने बेटे को कई चॉकलेट के वादे पर ट्रेन चलाने के लिए राजी किया, और यात्रा शुरू हुई।
कुछ महीने बाद, वह महिला अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने यूके लौट आई। वह जहाज से लंदन पहुंचे, उनकी रिहाइश वेल्स में एक काउंटी मेथी जिसके लिए उन्हें ट्रेन से यात्रा करनी थी। वह महिला स्टेशन पर एक बेंच पर अपनी बेटी और बेटे को बैठाकर टिकट लेने चली गई।लंबी कतार के कारण बहुत देर हो चुकी थी, जिससे उस महिला का बेटा बहुत परेशान हो गया था। जब वह ट्रेन में चढ़े तो आलीशान कंपाउंड की जगह फर्स्ट क्लास की सीटें देखकर उस बच्चे को फिर गुस्सा आ गया। ट्रेन ने समय पर यात्रा शुरू की तो वह बच्चा लगातार चीखने-चिल्लाने लगा। "वह ज़ोर से कह रहा था, यह कैसा उल्लू का पट्ठा ड्राइवर है है। उसने हमारी अनुमति के बिना ट्रेन चलाना शुरू कर दी है। मैं पापा को बोल कर इसे जूते लगवा लूंगा।" महिला को बच्चे को यह समझाना मुश्किल हो रहा था कि "यह उसके पिता का जिला नहीं है, यह एक स्वतंत्र देश है। यहां डिप्टी कमिश्नर जैसा तीसरे दर्जे का सरकारी अफसर तो क्या प्रधान मंत्री और राजा को भी यह अख्तियार नहीं है कि वह लोगों को उनके अहंकार को संतुष्ट करने के लिए अपमानित कर सके
आज यह स्पष्ट है कि हमने अंग्रेजों को खदेड़ दिया है। लेकिन हमने गुलामी को अभी तक देश बदर नहीं किया। आज भी कई डिप्टी कमिश्नर, एसपी, मंत्री, सलाहकार और राजनेता अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए आम लोगों को घंटों सड़कों पर परेशान करते हैं। इस गुलामी से छुटकारा पाने का एक ही तरीका है कि सभी पूर्वाग्रहों और विश्वासों को एक तरफ रख दिया जाए और सभी प्रोटोकॉल लेने वालों का विरोध किया जाए।
नहीं तो 15 अगस्त को झंडा फहराकर और मोमबत्तियां जलाकर लोग खुद को धोखा देते हैं के हम आजाद हैं...
प्रोटोकॉल को ना कहें।
Sunday, February 13, 2022
Thursday, August 19, 2021
अंग्रेजो को भगाने गांधीजी की क्या रणनीति थी ?

उदाहरण से समझे ।
एक विदेशी कंपनी है , उस में काम करनेवाले अधिकतर सारे कर्मचारी भारतीय है । उस कंपनी का सारा का सारा हुक्का पानी कंपनी के माल की बिक्री पर निर्भर रहता है । उस कंपनी में काम करनेवाले सारे भारतीय उस विदेशी कंपनी के सच्चे वफादार रहकर तनतोड मेहनत करके उस कंपनी को फायदा पहुंचाते है । अब कोई भारतीय मूल का समझदार आदमी उस झुलमी , तानाशाह , लोगो का खून चुसने वाली विदेशी कंपनी को भारत से भगाने की ठानता है , वो सबसे पहले स्वयं उस विदेशी कंपनी का माल नही खरीद के कंपनी का बहिष्कार करता है । यही बात वो सभी भारतीयों को समझाता है । धीरे धीरे वो कंपनी में काम कर रहे भारतीय कर्मचारीयो को कंपनी की नौकरी छोडने की सलाह देता है । यदि सब रणनीति के अनुसार हुआ तो कंपनी का हुक्का पानी बंद , तो कंपनी भी बंद ।
किंतु 34 करोड की जनसंख्या को समझाना इतना सरल नही होता ।
गांधीजी की इतनी सीधी सीधी बात भी हमारे कुछ भारतीय नही समझ सके ।
अंग्रेज हमारे देश में आए थे व्यापारी बनकर , हमारे ही राजा महाराजाओ से लोन लेकर हमारे ही भारतीयो को कर्मचारी बनाकर हमे गुलाम बनाया ।
गांधीजी की स्पष्ट रणनीति थी , अंग्रेजी वस्तुओ का बहिष्कार करे , स्वदेशी वस्तुओ का स्वीकार करे, सभी भारतीय अंग्रेजो की नौकरीया छोडे.....
इस मे से कुछ लोग गांधीजी की बात मान रहे थे कुछ लोग नही मान रहे थे । किसी को गांधीजी से अहम का टकराव था तो कुछ लोग ज़िन्दगी भर अंग्रेजो के वफादार बने रहना चाहते थे . . . . .
गांधीजी अपने विचार लोगो तक पहुंचाने लोगो को समझाने , मनाने समय लेते थे , जबकि हमारे क्रांतिकारी झटके में परिणाम चाहते थे ।
केवल 50 हजार अंग्रेज पूरे भारत पर राजाओ की तरह राज करते थे ।
सोचिए ऐसा क्यों
अंग्रेजो की इस कूटनीति से तो हिटलर भी हैरान था । क्योंकि हमारे राजाओ को भारतीय जनता की परवाह नही थी, वे अंग्रेजो के साथ मिलकर बेजुबान जानवरो का शिकार करने का मज़ा लेते थे , अय्याशी करते थे । हमारे ही भारतीय अंग्रेज सरकार में बडी मात्रा में नौकरीया करते थे , हमारे स्वतंत्रता सेनानीयो को मौत के घाट उतार देते थे ।
बदले में अगर हमने भी हथियार उठा लिया होता तो हमे ही हमारे भारतीय मूल के अंग्रेजी सिपाईयो को मारना पडता । हमारा सामना करने के लिए अंग्रेज दूसरे देशो से सिपाई बुलवाकर हम लोगो का खून बहाते । वैसे भी उस वक्त अंग्रेजो का भारत की तरह बहुत सारे देशो पर कब्जा था । ये क्रांति हमे कितनी सफलता दिलवाती ?
वैसे भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अंग्रेजो के खिलाफ जापान और हिटलर से सहायता तो ली थी , आखिर में नतिजा क्या आया ? अंग्रेजोने अपने सहयोगी देश की मदद से जापान और जर्मनी को दूसरे विश्व युद्ध में हराया और नेताजी के 30 हजार से भी ज्यादा सिपाईयो को बंदी बना दिया , फिर उन सिपाईयो का केस पंडित नेहरूजी ने लडा ।
रक्तरंजित क्रांति के लिए बहुत थोड़े से लोग तैयार होते थे , हथियारो का जुगाड करने बहुत सी अनीति अपनानी पडती थी ।
दूसरी ओर स्वदेशी चरखा चलाकर अंग्रेजी राज को खूल्ली चुनौती दी जाती थी , चरखे के कारण ब्रिटन के लंकाशायर और मैनचेस्टर शहर की कपडा मिलो में ताले लग गए थे ।
( दुःख की बात तो यह है की आज वही स्वदेशी के प्रतीक चरखे का मज़ाक उडाया जाता है ! ! )
क्रांतिकारीयो को कुचलने के लिए अंग्रेजो के पास गोलाबारुद था , फांसी के फंदे थे , मगर गांधी की आंखो में आंखे डालकर बात करे वैसा सत्यवादी नही था . . . .
यदि रक्तरंजित से ही आजादी मिलनी होती तो वैसी आजादी हमे 1857 में ही मिल जाती . . . . . .
1857 में जितना जान - माल का नुकसान हमने अंग्रेजो का किया था उतना नुकसान तो अंग्रेजो को कभी नही हुआ।
1857 में क्या हिंदू , क्या मुसलमान , क्या सिख ? सभी मिलकर टूट पडे थे अंग्रेजो पर . . . .
1857 में जितने हथियार अंग्रेजो के पास थे उनसे कही ज्यादा हथियार हमारे राजा महाराजाओ के पास थे ।
फिर भी अंग्रेज भारत छोड़कर नही गए । वैसे भी 1857 का वो विद्रोह देशस्वातंत्रता हेतु नही बल्कि हिंदु मुसलमानो का अंग्रेजो द्वारा गाय और सुअर की चरबी चखवाकर धर्मभ्रष्ट के विरुद्ध किया गया विद्रोह था ।
अंग्रेज राजाओ के साम्राज्य हडप कर रहे थे , राजा अपने साम्राज्य को बचाने 1857 के सैनिक विद्रोह में शामिल हुए ।
19 वी सदी आते-आते हमारे ज्यादातर राजा अंग्रेजो के साथ मिल गए , सारे हथियार हमारे स्वातंत्रता सेनानी के खून से रंगने लगे । 1935 आते आते अंग्रेज भारत में हिंदू - मुस्लिम - सिख - दलित के बीच जमकर आग लगा चुके थे । ऐसी नफरत की आंधी में सबको शांति का पाठ पढाना मतलब अपनी जान गवाहना . . . . .
गांधीजी कोई एक जाती एक वर्ग के नेता नही थे । वे सबके हित के बारे में सोचते थे ।
देश की आजादी में बहुत सारा बलिदान है , उन बलिदानो को शत् शत् नमन भी करते हैं ।
आजादी हिंसा से तो कतेह नही आई । ब्रिटन दोनों विश्व युद्ध विजेता देश था , भारत की हिंसात्मक बगावत कुचलना उनके बांये हाथ का खेल था । किंतु गांधीजी ने कभी ये नही कहा की आजादी मैंने दीलवाई । वे तो देश आजाद होने के बाद भी बुड्ढापे में लोगो के बीच नफरत की आग बुझाने का काम करते रहे ।
भगतसिंह , चंद्रशेखर आजाद , नेताजी सुभाषचंद्र बोस के विचार भले ही अहिंसा से अलग थे किंतु वे लोगो में देशभक्ति की भावना गांधीजी के कारण जागी । वे लोगो ने अपने प्राणो की आहुति दी मगर गांधी के विरुद्ध एक शब्द नही कहा ।
दूसरी ओर आजकल का नौजवान देश के लिए अपने नाखून कटवाने जीतना भी बलिदान नही देता वो आज गांधी जैसे महात्मा को गालीया देता रहता है ।
देश का दुर्भाग्य . . . . .
Wednesday, May 20, 2020
शख्सियत
जेल से रिहा होने के बाद मोहानी के पास रोजी-रोटी का कोई साधन नही था। गुजर-बसर के लिए उन्होंने स्वदेशी कपड़ों का व्यापार करने का निर्णय लिया। अलीगढ़ के मिस्टन रोड पर ‘खिलाफत स्टोर लिमिटेड’ कायम किया। जिसमें उन्होंने अर्से तक स्वदेस निर्मित कपड़े खरीद-फरोख्त करते रहे। हसरत मोहानी हिन्दुस्तान के वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी कपड़ों का व्यापार किया और जनता को उसके इस्तेमाल का फायदा समझाएं।
Subscribe to:
Posts (Atom)