Monday, December 1, 2025

अजमेर में मौजूद ख़्वाजा मोईनउद्दीन चिश्ती का आस्ताना 1893 में कुछ ऐसा दिखता था।

 


प्रोफेसर एम.एस. नरसिम्हन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में जवाहरलाल नेहरू को पहला भारतीय डिजिटल कंप्यूटर के बारे में बताते हुए।

 


औरंगज़ेब आलमगीर — ख़्वाजा गरीब नवाज़ की चौखट पर हाज़िरी




वो लम्हा जब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने झुककर ख़्वाजा गरीब नवाज़ की चौखट को सलाम किया — इतिहास भी सन्न रह गया! 
भारतीय इतिहास में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर का ज़िक्र हमेशा ताक़त, हुकूमत और जंगों के साथ किया जाता है।
लेकिन इतिहास में एक ऐसा लम्हा भी दर्ज है, जिसने दुनिया को बताया कि बादशाहत बड़ी ज़रूर है, मगर दरगाहों के दर पर सब बराबर हैं। 
साल 1679 से 1681 के बीच राजस्थान में फौजी मुहिम के दौरान
औरंगज़ेब आलमगीर ने अजमेर शरीफ़ में ख़्वाजा गरीब नवाज़ मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर हाज़िरी दी।
यह सिर्फ़ एक यात्रा नहीं थी —
अहद, अकीदत और तस्लीम का इज़हार था।
वो ऐतिहासिक क्षण
बादशाह अपने कुछ चुनिंदा दरबारियों और अपने दो बेटों बहादुर शाह और आज़म शाह के साथ दरगाह शरीफ़ पहुँचे।
कहते हैं कि उस वक़्त दरगाह का माहौल ऐसा था कि
ताज और तख़्त की चमक भी सूफियाओं के नूर के सामने फीकी पड़ गई।  मोहब्बत और अकीदत का सबूत
हाज़िरी के दौरान औरंगज़ेब की ओर से दरगाह के ख़ादिमों को
बेशुमार अतिया (दान/नज़राना) दिया गया।
दान चाहे छोटा हो या बड़ा —
मक़सद हमेशा एक ही होता है: अकीदत का इज़हार।
यह वाक़िया सिर्फ़ एक बादशाह का दरगाह जाना नहीं था,
बल्कि इस बात का सुबूत भी था कि
अलिया-ए-अल्लाह की चौखट पर हर शक्स बराबर है — चाहे वो ताजपोश बादशाह ही क्यों न हो। 
 सोचने वाली बात
इतिहास लड़ाइयों और फ़तहों से नहीं —
दिलों के झुकने से भी लिखा जाता है।
आज भी जब कोई श्रद्धालु अजमेर शरीफ़ पहुँचता है,
तो वह उसी अकीदत और मोहब्बत की रवायत को आगे बढ़ाता है
जो सदियों पहले बादशाहों ने निभाई।