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Saturday, February 10, 2024
अल्लामा फज़ले हक खैराबादी ( 1797 - 1861 )
अल्लामा फज़ले हक खैराबादी ( 1797 - 1861 ) वे प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम 1857 की क्रांति के क्रांतिकारी एवं तर्कशास्त्री, उर्दू, अरबी व फारसी के प्रसिद्ध शायर थे।
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हक का जन्म 1797 ई• में उत्तर प्रदेश के ज़िला सीतापुर के खैराबाद में हुआ था। उन्होंने शिक्षा दीक्षा धार्मिक रीति रिवाज़ो से प्राप्त की।
शिक्षा समापन के बाद वह खैराबाद में अध्यापन कार्य करने लगे और फिर 1816 ई• में उन्नीस साल की उम्र में दिल्ली ब्रिटिश सरकार में नौकरी करने लगे।
लेकिन एक ऐसा समय आया जब उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी नहीं करने का मन बना लिया और 1831 में सरकारी नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ना के बाद वह दिल्ली के मुगल दरबार में कामकाज देखने लगें और शायरों की महफिल से वाबस्ता होने लगे।
1857 के दौर में जब ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़ुल्मों की हद हो गई और हिन्दुस्तान के राजा महाराजा तथा नवाबों की रियासतों को हड़पना चाहा तो सभी राजा महाराजाओं तथा नवाबों और मौलवियों द्वारा अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का प्रयास किया गया और ज़बरदस्त विद्रोह की योजना बनाई गई। जिसका नेतृत्व क्रांति के महानायक मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फर द्वारा किया गया और अल्लामा फज़ले हक़ खैराबादी ने उनके साथ मिलकर अहम भूमिका निभाई।
अल्लामा फज़ले हक द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर मुस्लिम समुदाय से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में शामिल होने की अपील की। जिसका लाभ मुगल सम्राट और अन्य विद्रोही नेताओं को मिला।
मौलाना द्वारा फतवा जारी करने के बाद से ही अंग्रेजी प्रशासन द्वारा उनकी तलाश शुरू कर दी गई। क्रांति असफल हो जाने के बाद मौलाना बचते बचाते दिल्ली से खैराबाद तशरीफ ले आये। खैराबाद में अंग्रेजों को भनक लग गई। 30 जनवरी 1859 को उन्हें खैराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया।
खैराबाद से उन्हें लखनऊ सेशन कोर्ट लाया गया और वहां उन पर मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमें की पैरवी के लिए उन्होंने कोई वकील नियुक्त नहीं किया बल्कि मुकदमे की पैरवी उन्होंने खुद की। मौलाना पर अंग्रेजों के खिलाफ जेहाद का फतवा देने और लोगों को विद्रोह के लिए उकसाने, भड़काने के संगीन आरोप लगाये गये।
मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने अपने जुर्म को कुबूल किया पर झूठ नहीं बोला और कहा -- हॉ वह फतवा सही है, वह मेरा लिखा हुआ था और आज भी मैं इस फतवे पर कायम हूं।
आरोपो को कुबूल करने के बाद उन्हें काले पानी की सज़ा सुनाई गई और सारी ज़ायदाद ज़ब्त करने का आदेश दिया गया। अंडमान-निकोबार ( सेलूलर जेल ) में ही 20 अगस्त 1861 में उनका देहांत हो गया। थे
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