Thursday, August 7, 2025

मोहम्मद शाह



आज के दिन ही, 7 अगस्त 1702 ई. के दिन गजनी (अफगानिस्तान) में मोहम्मद शाह की पैदाइश हुई थी। मोहम्मद शाह औरंगजेब के परपोते थे, उस समय हिंदुस्तान में औरंगजेब की ही हुकूमत कायम थी। मुहम्मद शाह का दौर-ए-हुकूमत कई मायनों में बहुत अहम् माना जाता है, उनके दौर में मुगलिया हुकूमत लगातार अपने जवाल की ओर बढ़ती रही। 1739 में नादिरशाह के हमले के बाद से ही मुगलिया सल्तनत का सूरज डूबने लगा था।
मिर्जा नासिर-उद-दीन मुहम्मद शाह रोशन अख्तर 15वें मुग़ल बादशाह थे उन्होंने 1719 से 1748 तक हिंदुस्तान पर हुक्मरानी की थी। उनका दौर-ए-हुकूमत कई मायनों में बहुत अहम् माना जाता है, जंहा एक ओर उनके दौर में मुगलिया सल्तनत मोतियों की माला की तरह टूट कर बिखर गयी तो वहीं उनके ही दौर में उर्दू शायरियों दौर अपने ओरुज पर था।
मुग़लों की दरबारी और शाही ज़बान तो फ़ारसी थी, लेकिन जैसे जैसे दरबार की गिरफ़्त आम लोगों की ज़िंदगी पर ढीली पड़ती गई, लोगों की ज़बान यानी उर्दू उभरकर ऊपर आने लगी बिलकुल ऐसे ही जैसे बरगद की शाख़े काट दी जाएं तो उसके नीचे दूसरे पौधों को फलने फूलने का मौक़ा मिल जाता है। इसलिए मोहम्मद शाह रंगीला के दौर को उर्दू शायरी का सुनहरा दौर कहा जा सकता है।
उस दौर की शुरूआत ख़ुद मोहम्मद शाह के तख़्त पर बैठते ही हो गई थी जब बादशाह के साल-ए-जुलूस यानी 1719 में वाली-ए-दक्कनी का दीवान दक्कन से दिल्ली पहुंचा। उस दीवान ने दिल्ली के ठहरे हुए अदबी झील में ज़बरदस्त तलातुम पैदा कर दिया और यहां के लोगों को पहली बार पता चला कि उर्दू (जिसे उस ज़माने में रेख़्ता, हिंदी या दक्कनी कहा जाता था) में यूं भी शायरी हो सकती है।
ज़ाहिर है कि बाबर, अकबर या औरंगजेब के मुक़ाबले मोहम्मद शाह कोई फौजी जरनल नहीं थे और नादिर शाह के खिलाफ करनाल के अलावा उन्होंने किसी जंग में फौज की कयादत नहीं की थी। न ही उनमें जहांबानी व जहांग़ीर की वो ताक़त और तवानाई मौजूद थी जो पहले मुग़लों की खासियत थी।
मुहम्मद शाह एक मर्द-ए-अमल नहीं बल्कि मर्द-ए-महफिल थे और अपने परदादा औरंगज़ेब के मुक़ाबले में युद्ध की कला से ज़्यादा लतीफ़े की कला के प्रेमी थे।
क्या मुग़ल सल्तनत के जवाल की सारी ज़िम्मेदारी मोहम्मद शाह पर डाल देना सही है? हमारे ख़्याल से ऐसा नहीं है। ख़ुद औरंगज़ेब ने अपनी जुनूनी सोच, सख्त इन्तिज़ामी और बिला-वजह फौज बढ़ाने से तख़्त के पांव में दीमक लगाने की शुरुआत कर दी थी।
जिस तरह सेहतमंद शरीर को संतुलित भोजन की ज़रूरत होती है, वैसे ही सेहतमंद समाज के लिए ज़िंदा दिली और ख़ुश तबियत इतनी ही ज़रूरी है जितनी की ताक़तवर फौज। औरंगज़ेब ने तलवार के पलड़े पर ज़ोर डाला तो उनके परपोते ने हुस्न और संगीत वाले पर नतीजा वही निकलना था जो सबके सामने है।




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