1542 ईस्वी का दृष्टांत है. बीकानेर के राव जैतसी, पाहेबा गांव के निकट अपने ही स्वजन जोधपुर के राव मालदेव के विरुद्ध संघर्षरत थे.
उक्त विकट परिस्थिति में भी राव जैतसी को अपने वचन की आन रखने के लिए रात्रि को बीकानेर के गढ में वापस आना पड़ा था, क्योंकि दो मुस्लिम पठान, जो घोड़ों का व्यापार करते थे, अपनी अधिशेष राशि लेने के लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे.
उक्त स्थिति में राव जैतसी की सहृदयता से विभूषित हो कर मुस्लिम पठानों ने अधिशेष राशि लेने से मना कर दिया था. अनन्तर, जब राव जैतसी रात्रि के अंतिम प्रहर में युद्ध स्थल पर पहुंचे तो भ्रमवश बीकानेर की सेना विश्रंखलित हो चूकी थी. फलत: राव जैतसी को कुछ सैनिकों के साथ अकेले ही युद्ध करना पड़ा था.
अंतत: राव जैतसी वीर गति को प्राप्त हो गए, तदुपरांत जोधपुर के राठौड़ बीकानेर पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए अग्रसर हुए.
इतिहास साक्षी है कि भोजराज रूपावत जो बीकानेर नगर की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध थे, तब मुस्लिम पठानों ने भोजराज रूपावत का साथ देते हुए बीकानेर की अस्मिता की रक्षा के लिए अदम्य साहस का परिचय देते हुए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया था.
सैयद सालू एवं धन्ना, जो मुस्लिम पठानों के नाम हैं, उनकी मजार आज भी बीकानेर में अवस्थित है.
निस्संदेह, उक्त मजार जो आज ' दो भाइयों की मजार ' के रूप में बीकाणे की संस्कृति में रची बसी हुई है, हमें साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए उत्प्रेरित करती है.
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